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हक़ीक़त ज़ीस्त की समझा नहीं है | शाही शायरी
haqiqat zist ki samjha nahin hai

ग़ज़ल

हक़ीक़त ज़ीस्त की समझा नहीं है

सीमा शर्मा मेरठी

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हक़ीक़त ज़ीस्त की समझा नहीं है
वो अपने दश्त से गुज़रा नहीं है

अँधेरे रक़्स करते हैं मुसलसल
कि सूरज रात को आता नहीं है

करेगा ख़ुद-कुशी ही एक दिन वो
सुकूँ जिस ज़ेहन को मिलता नहीं है

उठाए घूमती है ज़र्द पत्ते
हवा से और कुछ चलता नहीं है

न डूबो शम्अ में परवानो तुम, ये
दहकती आग है दरिया नहीं है

उमंगों की कई नदियाँ हैं इस में
समुंदर है ये दिल सहरा नहीं है

ये जो आतिश-फ़िशाँ है मुझ में 'सीमा'
दहकता रहता है बुझता नहीं है