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हमराह मिरे कोई मुसाफ़िर न चला था | शाही शायरी
hamrah mere koi musafir na chala tha

ग़ज़ल

हमराह मिरे कोई मुसाफ़िर न चला था

शबनम शकील

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हमराह मिरे कोई मुसाफ़िर न चला था
धोका मुझे ख़ुद अपनी ही आहट से हुआ था

मसदूद हुई जिस की हर इक राह-ए-सरासर
इस सफ़ में मुझे ला के खड़ा किस ने किया था

जुम्बिश ही से होंटों की जो कुछ समझो तो समझो
इस गुंग-महल में तो बस इतना ही रवा था

ता'मीर हुए घर तो गए जाने कहाँ वो
जिन ख़ाना-ब-दोशों का यहाँ ख़ेमा लगा था

धुँदलाए ख़द-ओ-ख़ाल गर उस के तो अजब क्या
देखे हुए यूँ भी उसे युग बीत गया था

शब शो'ला-ब-दामाँ तो सहर सोख़्ता-सामाँ
दो रूप बदलता था अजब वो भी दिया था