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हमें सब अहल-ए-हवस ना-पसंद रखते हैं | शाही शायरी
hamein sab ahl-e-hawas na-pasand rakhte hain

ग़ज़ल

हमें सब अहल-ए-हवस ना-पसंद रखते हैं

अहमद मुश्ताक़

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हमें सब अहल-ए-हवस ना-पसंद रखते हैं
कि हम नवा-ए-मोहब्बत बुलंद रखते हैं

इसी लिए तो ख़फ़ा हैं सितम-शिआर कि हम
निगाह-ए-नर्म ओ दिल-ए-दर्दमंद रखते हैं

अगरचे दिल वही रजअत-पसंद है अपना
मगर ज़बान तरक़्क़ी-पसंद रखते हैं

हम ऐसे अर्श-नशीनों से वो दरख़्त अच्छे
जो आँधियों में भी सर को बुलंद रखते हैं

चले हो देखने 'मुश्ताक़' जिन को पिछली रात
वो लोग शाम से दरवाज़ा बंद रखते हैं