हमें सब अहल-ए-हवस ना-पसंद रखते हैं
कि हम नवा-ए-मोहब्बत बुलंद रखते हैं
इसी लिए तो ख़फ़ा हैं सितम-शिआर कि हम
निगाह-ए-नर्म ओ दिल-ए-दर्दमंद रखते हैं
अगरचे दिल वही रजअत-पसंद है अपना
मगर ज़बान तरक़्क़ी-पसंद रखते हैं
हम ऐसे अर्श-नशीनों से वो दरख़्त अच्छे
जो आँधियों में भी सर को बुलंद रखते हैं
चले हो देखने 'मुश्ताक़' जिन को पिछली रात
वो लोग शाम से दरवाज़ा बंद रखते हैं
ग़ज़ल
हमें सब अहल-ए-हवस ना-पसंद रखते हैं
अहमद मुश्ताक़