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हमारे हाथ में कब साग़र-ए-शराब नहीं | शाही शायरी
hamare hath mein kab saghar-e-sharab nahin

ग़ज़ल

हमारे हाथ में कब साग़र-ए-शराब नहीं

अख़्तर शीरानी

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हमारे हाथ में कब साग़र-ए-शराब नहीं
हमारे क़दमों पे किस रोज़ माहताब नहीं

जहाँ में अब कोई सूरत पए-सवाब नहीं
वो मय-कदे नहीं साक़ी नहीं शराब नहीं

शब-ए-बहार में ज़ुल्फ़ों से खेलने वाले
तिरे बग़ैर मुझे आरज़ू-ए-ख़्वाब नहीं

चमन में बुलबुलें और अंजुमन में परवाने
जहाँ में कौन ग़म-ए-इश्क़ से ख़राब नहीं

ग़म, आह इश्क़ के ग़म का कोई नहीं मौसम
बहार हो कि ख़िज़ाँ कब ये इज़्तिराब नहीं

उमीद-ए-पुर्सिश-ए-अहवाल हो तो क्यूँकर हो
सलाम का भी तिरी बज़्म में जवाब नहीं

वतन का छेड़ दिया किस ने तज़्किरा 'अख़्तर'
कि चश्म-ए-शौक़ को फिर आरज़ू-ए-ख़्वाब नहीं