हमारे अज़ाबों का क्या पूछते हैं
कभी आप कमरे में तन्हा रहे हैं
ये तन्हाई भी एक ही साहिरा है
मियाँ इस की क़ुदरत में सौ वसवसे हैं
हुए ख़त्म सिगरेट अब क्या करें हम
है पिछ्ला पहर रात के दो बजे हैं
चलो चंद पल मूँद लें अपनी पलकें
यूँ जैसे कि हम वाक़ई सो गए हैं
ज़रा ये भी सोचें कि रातों को अक्सर
भला कुत्ते गलियों में क्यूँ भौंकते हैं
झगड़ती हैं बिल्लों से सब बिल्लियाँ क्या
अज़िय्यत में लज़्ज़त के पहलू छुपे हैं
हुईं ख़त्म 'अरशद' तुम्हारी सज़ाएँ
परिंदे रिहाई का दर खोलते हैं
ग़ज़ल
हमारे अज़ाबों का क्या पूछते हैं
रज़्ज़ाक़ अरशद