हमारा ज़िक्र दुश्मन की ज़बानी देखते जाओ
फ़साना बन गई सारी कहानी देखते जाओ
ज़रा इक छेड़ दो ज़ाहिद से क़िस्से हूर-ओ-ग़िल्माँ के
फिर उस कम-बख़्त की रंगीं-बयानी देखते जाओ
टपक ले ख़ून अरमानों का आँखों से ज़रा ठहरो
मिरी लुटती हुई रंगीं जवानी देखते जाओ
कमाल-ए-सोज़ ग़म-हा-ए-निहानी ढूँडने वालो
मआल-ए-सोज़ ग़म-हा-ए-निहानी देखते जाओ
बहुत चर्चे थे यारों में मिरी जादू-बयानी के
हुज़ूर-ए-दोस्त मेरी बे-ज़बानी देखते जाओ
ग़ज़ल
हमारा ज़िक्र दुश्मन की ज़बानी देखते जाओ
हरी चंद अख़्तर