EN اردو
हमारा तो कोई सहारा नहीं है | शाही शायरी
hamara to koi sahaara nahin hai

ग़ज़ल

हमारा तो कोई सहारा नहीं है

जमील मज़हरी

;

हमारा तो कोई सहारा नहीं है
ख़ुदा है तो लेकिन हमारा नहीं है

मोहब्बत की तल्ख़ी गवारा है लेकिन
हक़ीक़त की तल्ख़ी गवारा नहीं है

मिरी ज़िंदगी वो ख़ला है कि जिस में
कहीं दूर तक कोई तारा नहीं है

ख़ुदा क्या ख़ुदी को भी आवाज़ दी है
मुसीबत में किस को पुकारा नहीं है

सराब इक हक़ीक़त है आब इक तसव्वुर
यही ज़िंदगी है तो चारा नहीं है

हम अपनी ही आँखों का पर्दा उलट दें
हक़ीक़त को ये भी गवारा नहीं है

वो क्या उन के गेसू सँवारेगा जिस ने
गरेबाँ भी अपना सँवारा नहीं है

ख़ुदा उस से निपटे तो निपटे कि ये दिल
हमारा नहीं है तुम्हारा नहीं है

नज़र उन की गोशा-नशीं है हया से
इशारा नहीं ये इशारा नहीं है

हमारा है क्या जब हमारा इरादा
हमारा है लेकिन हमारा नहीं है

गरेबाँ बहुत से हुए पारा पारा
नक़ाब एक भी पारा पारा नहीं है

किसी के लिए दिल को सुलगा के देखो
जहन्नम कोई इस्तिआरा नहीं है

ब-जुज़ 'मज़हरी' के सभी बज़्म में हैं
वही तेरे वादों का मारा नहीं है