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हमारा हुस्न-ए-तअल्लुक़ वफ़ा बने न बने | शाही शायरी
hamara husn-e-talluq wafa bane na bane

ग़ज़ल

हमारा हुस्न-ए-तअल्लुक़ वफ़ा बने न बने

पंडित जवाहर नाथ साक़ी

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हमारा हुस्न-ए-तअल्लुक़ वफ़ा बने न बने
वो इश्वा-संज है फ़र्रूख़-लिक़ा बने न बने

चले हैं शौक़ में हम या-ख़ुदा बने न बने
वो क्या सुलूक करे दिल-रुबा बने न बने

किया तसव्वुर-ए-मक़्सूद ने हमें हैराँ
ये मुंतहा-ए-नज़र मुद्दआ' बने न बने

सफ़ीना बहर-ए-तअ'श्शुक़ में अब तो डाल चुका
जो आश्ना है मिरा ना-ख़ुदा बने न बने

फ़रेब-ए-जल्वा है नक़्श-ओ-निगार फ़ितरत में
जो महव-ए-दीद हो हैरत-अदा बने न बने

शहीद-ए-कैफ़-ए-तमन्ना है आशिक़-ए-बेताब
बहार-ए-हुस्न-ए-सफ़ा हम-नवा बने न बने

फ़ुसूँ ख़याल है तहरीक-ए-शौक़-ए-रानाई
वो मस्त-ए-नाज़ मिरा ख़ुद-नुमा बने न बने

बंधी है ख़ंदा-ए-ज़ेर-ए-लबी से कुछ उम्मीद
वो ज़ूद-रंज है ज़ूद-आश्ना बने न बने

वो जज़्ब-ए-क़ल्ब के नैरंग का हुआ क़ाइल
हमारा आइना हैरत-नुमा बने न बने

कभी तो जाम-ए-इनायत का हो ग़नी 'साक़ी'
ये बे-नियाज़ तिरा बे-नवा बने न बने