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हम तल्ख़ी-ए-हयात को आसाँ न कर सके | शाही शायरी
hum talKHi-e-hayat ko aasan na kar sake

ग़ज़ल

हम तल्ख़ी-ए-हयात को आसाँ न कर सके

मुज़फ्फ़र अहमद मुज़फ्फ़र

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हम तल्ख़ी-ए-हयात को आसाँ न कर सके
सहराई-ज़िंदगी को गुलिस्ताँ न कर सके

था ज़ो'म जिन को अपनी मसीहाई का यहाँ
वो भी इलाज-ए-सोज़िश-ए-पिन्हाँ न कर सके

वारफ़्तगी-ए-शौक़ में शल हो गए बदन
आबिद तवाफ़-ए-कूचा-ए-जानाँ न कर सके

कुछ यूँ चली थी बाद-ए-हवादिस कि कि उम्र-भर
क़िंदील-ए-आरज़ू को फ़रोज़ाँ न कर सके

आलाम-ए-आशिक़ी ने किया ख़ुद से बे-ख़बर
हम तज़किरा-ए-सख़्ती-ए-दौराँ न कर सके

ऐसा चुभा है नश्तर-ए-बेदाद-ए-आरज़ू
हम ज़िंदगी में फिर कोई अरमाँ न कर सके

बाद-ए-नसीम अब के 'मुज़फ़्फ़र' अजीब थी
हम एहतिमाम-ए-सुब्ह-ए-बहाराँ न कर सके