EN اردو
हम सोज़-ए-दिल बयाँ करें तुम से कहाँ तलक | शाही शायरी
hum soz-e-dil bayan karen tum se kahan talak

ग़ज़ल

हम सोज़-ए-दिल बयाँ करें तुम से कहाँ तलक

सरस्वती सरन कैफ़

;

हम सोज़-ए-दिल बयाँ करें तुम से कहाँ तलक
जलने लगी है अब तो हमारी ज़बाँ तलक

कुछ बे-कसी-ए-राह-रौ-ए-ग़म न पूछिए
मिलती नहीं है गर्द-ए-रह-ए-कारवाँ तलक

शर्मा के लौट आए न जब कुछ असर हुआ
नाले हमारे पहुँचे तो थे आसमाँ तलक

उम्मीद-ए-बादा किस को है ख़ून-ए-जिगर पियो
है मोहतसिब के रूप में पीर-ए-मुग़ाँ तलक

राज़-ओ-नियाज़-ए-इश्क़ की क्या हो ख़बर हमें
हासिल नहीं है दीद-ए-रुख़-ए-महवशाँ तलक

किस मुँह से हम बयान करें माजरा-ए-दिल
उन को नहीं पसंद है सोज़-ए-निहाँ तलक

हम को क़फ़स ही रास हुआ बर्क़ के तुफ़ैल
बाक़ी नहीं चमन में रहा आशियाँ तलक

पा-ए-ज़ईफ़ बअ'द में चाहें तो टूट जाएँ
पहुँचा दें एक बार तो कू-ए-बुताँ तलक

शायद बक़ा-ए-इश्क़ इसी शय को कहते हैं
हम भूल बैठे ग़म में ज़मान-ओ-मकाँ तलक

यारो हमारी ज़ीस्त का क़िस्सा है मुख़्तसर
महदूद है हदीस-ए-ग़म-ए-दिल-बराँ तलक

मुतलक़ नहीं है 'कैफ़' को दावा-ए-जज़्ब-ए-दिल
मक़्दूर इस का गिर्या-ओ-आह-ओ-फ़ुग़ाँ तलक