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हम शहर में इक शम्अ की ख़ातिर हुए बर्बाद | शाही शायरी
hum shahr mein ek shama ki KHatir hue barbaad

ग़ज़ल

हम शहर में इक शम्अ की ख़ातिर हुए बर्बाद

शोहरत बुख़ारी

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हम शहर में इक शम्अ की ख़ातिर हुए बर्बाद
लोगों ने किया चाँद के सहराओं को आबाद

हर सम्त फ़लक-बोस पहाड़ों की क़तारें
'ख़ुसरव' है न 'शीरीं' है न तेशा है न फ़रहाद

बरसों से यही ख़्वाब हैं नींदों की सजावट
गुलशन है मगर गुल है न बुलबुल है न सय्याद

हूँ ताइर-ए-बे-बाम चराग़-ए-सर-ए-सहरा
उम्मीद-ए-करम है न मुझे शिकवा-ए-बेदाद

जिस घर को बसाया था मिरी बे-ख़बरी ने
आज उस को तिरी ख़ुद-निगरी कर गई बर्बाद

कुछ ऐसा धुआँ है कि घुट्टी जाती हैं साँसें
इस रात के ब'अद आओगे शायद न कभी याद

हर ज़र्रा है मदफ़न मिरी हैरत-निगही का
यारब! ये गली कूचे हमेशा रहें आबाद

कल अपनी भी तस्वीर न पहचान सकेंगे
इस दौर को बख़्शे गए वो 'मानी' वो 'बहज़ाद'

सुनसान है ज़िंदाँ भी बिसान-ए-दिल-ए-शाएर
ने शोर-ए-सलासिल है न हंगामा-ए-फ़रियाद

ख़ुर्शीद-ए-क़यामत उतर आए रग-ए-जाँ में
ऐ नग़्मागरो ऐसी कोई तर्ज़ हो ईजाद

'शोहरत' कि है अब वज्ह-ए-परेशानी-ए-अहबाब
उठ जाएगा जिस रोज़ तू आएगा बहुत याद