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हम शाद हों क्या जब तक आज़ार सलामत है | शाही शायरी
hum shad hon kya jab tak aazar salamat hai

ग़ज़ल

हम शाद हों क्या जब तक आज़ार सलामत है

गुलज़ार बुख़ारी

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हम शाद हों क्या जब तक आज़ार सलामत है
सर फोड़ चुके फिर भी दीवार सलामत है

आया तिरे होंटों पर एलान-ए-जुनूँ क्यूँ कर
जब तेरे गरेबाँ का हर तार सलामत है

अंदाज़ दिखाए हैं क्या शोख़ी-ए-तिफ़्लाँ ने
इस शहर में अब किस की दीवार सलामत है

लुटता है तो लुट जाए सुख-चैन फ़क़ीरों का
क्या फ़िक्र तुझे तेरा पिंदार सलामत है

इक संग के हटने से ख़ुश-फ़हम न हो इतना
मत भूल कि रस्ते में कोहसार सलामत है

'गुलज़ार' हमें देखो कश्ती को डुबो कर भी
किस फ़ख़्र से कहते हैं पतवार सलामत है