हम-सफ़र तू ने परों को जो मिरे काटा है
तेरे किरदार का ये सब से बड़ा घाटा है
आइए आप को दस्तार-ए-फ़ज़ीलत दी जाए
आप ने अपने ही लोगों का गला काटा है
कोई दस्तक कोई आहट न सदा है कोई
दूर तक रूह में फैला हुआ सन्नाटा है
लुत्फ़ ये है कि उसी शख़्स के मम्नून हैं हम
जिस की तलवार ने क़िस्तों में हमें काटा है
हम पे ग़लबे की यही एक तो सूरत थी 'वसीम'
बुज़दिलों ने यूँ ही ख़ानों में नहीं बाँटा है

ग़ज़ल
हम-सफ़र तू ने परों को जो मिरे काटा है
वसीम मलिक