EN اردو
हम रिवायत के साँचे में ढलते भी हैं | शाही शायरी
hum riwayat ke sanche mein Dhalte bhi hain

ग़ज़ल

हम रिवायत के साँचे में ढलते भी हैं

युसूफ़ जमाल

;

हम रिवायत के साँचे में ढलते भी हैं
और तर्ज़-ए-कुहन को बदलते भी हैं

जादा-ए-आम पर भी है अपनी नज़र
जादा-ए-आम से बच के चलते भी हैं

राहिबाना क़नाअत के ख़ूगर सही
वालिहाना कभी हम मचलते भी हैं

दामन-ए-नश्शा देते नहीं हात से
रिंद गिरते भी हैं और सँभलते भी हैं

यूँ तो इख़फ़ा-ए-ग़म का नमूना हैं हम
दूसरों के लिए हात मलते भी हैं

कुछ ये है मस्लहत-केश हम भी नहीं
कुछ ये अहल-ए-रिया हम से जलते भी हैं

नाज़ क्या इस क़दर आरज़ी हुस्न पर
शहरयारों के सिक्के बदलते भी हैं