हम-रही की बात मत कर इम्तिहाँ हो जाएगा
हम सुबुक हो जाएँगे तुझ को गिराँ हो जाएगा
जब बहार आ कर गुज़र जाएगी ऐ सर्व-ए-बहार
एक रंग अपना भी पैवंद-ए-ख़िज़ाँ हो जाएगा
साअत-ए-तर्क-ए-तअल्लुक़ भी क़रीब आ ही गई
क्या ये अपना सब तअल्लुक़ राएगाँ हो जाएगा
ये हवा सारे चराग़ों को उड़ा ले जाएगी
रात ढलने तक यहाँ सब कुछ धुआँ हो जाएगा
शाख़-ए-दिल फिर से हरी होने लगी देखो 'नसीर'
ऐसा लगता है किसी का आशियाँ हो जाएगा
ग़ज़ल
हम-रही की बात मत कर इम्तिहाँ हो जाएगा
नसीर तुराबी