EN اردو
हम क़त्ल कब हुए ये पता ही नहीं चला | शाही शायरी
hum qatl kab hue ye pata hi nahin chala

ग़ज़ल

हम क़त्ल कब हुए ये पता ही नहीं चला

सहर महमूद

;

हम क़त्ल कब हुए ये पता ही नहीं चला
अंदाज़ था अजब कि वो ख़ंजर अजीब था

उम्मीद-ए-बारयाबी तो मुझ को न थी मगर
साहिल पे आ गया मैं समुंदर अजीब था

दम-भर को भी निगाह न चेहरे पे टिक सकी
उस पैकर-ए-जमाल का तेवर अजीब था

तन्हा भी रह के हम कभी तन्हा नहीं हुए
हमराह उस की यादों का दफ़्तर अजीब था

हम-दम गुमान होता था फूलों की सेज का
ख़ारों से वो सजा हुआ बिस्तर अजीब था

हम महव-ए-जुस्तुजू थे 'सहर' मुस्तक़िल मगर
मंज़िल मिली न फिर भी मुक़द्दर अजीब था