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हम पे जौर-ओ-सितम के क्या मअनी | शाही शायरी
hum pe jaur-o-sitam ke kya mani

ग़ज़ल

हम पे जौर-ओ-सितम के क्या मअनी

सख़ी लख़नवी

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हम पे जौर-ओ-सितम के क्या मअनी
तर्क-ए-रहम-ओ-करम के क्या मअनी

ऐश-ओ-इशरत से ग़म के क्या मअनी
फ़रबही है दिरम के क्या मअनी

रात फ़ुर्क़त की किस को कहते हैं
रोज़-ए-हिज्र-ए-सनम के क्या मअनी

गर नहीं उस का साग़र-ए-मय-नाब
कहिए फिर जाम-ए-जम के क्या मअनी

पूजना बुत का है ये क्या मज़मून
और तवाफ़-ए-हरम के क्या मअनी

कूचा-ए-गुल-रुख़ाँ को कहते हैं
और बाग़-ए-इरम के क्या मअनी

यूँही वादा करो यक़ीं हो जाए
क्यूँ क़सम लूँ क़सम के क्या मअनी

माजरा चश्म-ए-नम का तू समझे
लेकिन अब्र-ओ-करम के क्या मअनी

बोसे व'अदे से कम नहीं मंज़ूर
दम न दो हम को दम के क्या मअनी

एक दो तीन चार पाँच छे सात
यूँही गिन लेंगे कम के क्या मअनी

ऐ 'सख़ी' यार ने दिखाई कमर
शब जो पूछा अदम के क्या मअनी