हम नीं सजन सुना है उस शोख़ के दहाँ है
लेकिन कभू न देखा कीता है और कहाँ है
ढूँडा हज़ार तो भी तेरा निशाँ न पाया
लश्कर में गुल-रुख़ाँ के तेरी मसल कहाँ है
अब तिश्नगी का रोज़ा शायद खुले हमारा
शाम ओ शफ़क़ सजन का मिस्सी ओ रंग-ए-पाँ है
दिल में किया है दावा अँखियाँ हुई हैं मुंकिर
तेरी कमर का झगड़ा इन दो के दरमियाँ है
रहता हूँ ऐ पियारे क़दमों तले तुम्हारे
जिस राह आवते हो आजिज़ का व्हीं मकाँ है
तुझ ख़त्त-ए-पुश्त-ए-लब में तिस का सुख़न हुआ सब्ज़
उस की ज़बाँ दहन में मानिंद-ए-बर्ग-ए-पाँ है
पीरी सीं क़द कमाँ है हर-चंद 'आबरू' का
इस नौजवाँ की ख़ातिर दिल अब तलक कशाँ है
ग़ज़ल
हम नीं सजन सुना है उस शोख़ के दहाँ है
आबरू शाह मुबारक