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हम ने तन्हा-नशीनी ख़रीदी तो है रौनक़ ओ शोरिश-ए-अंजुमन बेच कर | शाही शायरी
humne tanha-nashini KHaridi to hai raunaq o shorish-e-anjuman bech kar

ग़ज़ल

हम ने तन्हा-नशीनी ख़रीदी तो है रौनक़ ओ शोरिश-ए-अंजुमन बेच कर

मुग़ीसुद्दीन फ़रीदी

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हम ने तन्हा-नशीनी ख़रीदी तो है रौनक़ ओ शोरिश-ए-अंजुमन बेच कर
शम्अ' मेहराब-ए-दिल में जलाई तो है आरज़ूओं का अपनी कफ़न बेच कर

मुतमइन हैं बहुत आज अर्बाब-ए-फ़न अपना सरमाया-ए-फ़िक्र-ओ-फ़न बेच कर
जैसे आईना रख दे कोई माह-वश हल्क़ा-ए-ज़ुल्फ़ का बाँकपन बेच कर

खो गया दर्द हंगामा-ए-शहर में लुट रही है दुकान-ए-मता-ए-नज़र
अब भी तौफ़ीक़ अगर है तो अहल-ए-जुनूँ बढ़ के ले लो उसे जान ओ तन बेच कर

रुत बदलती रही रंग उड़ते रहे कम-नज़र बाग़बाँ कम-नज़र ही रहे
इक ख़याबाँ को सैराब करते रहे आबरू-ए-बहार-ए-चमन बेच कर

है 'फ़रीदी' अजब रंग-ए-बज़्म-ए-जहाँ मिट रहा है यहाँ फ़र्क़-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ
नूर की भीक तारों से लेने लगा आफ़्ताब अपनी इक इक किरन बेच कर