हम कहाँ आइना ले कर आए
लोग उठाए हुए पत्थर आए
दिल के मलबे में दबा जाता हूँ
ज़लज़ले क्या मिरे अंदर आए
जल्वा जल्वे के मुक़ाबिल ही रहा
तुम न आईने से बाहर आए
दिल सलासिल की तरह बजने लगा
जब तिरे घर के बराबर आए
जिन के साए में सबा चलती थी
फिर न वो लोग पलट कर आए
शेर का रूप बदल कर 'बाक़ी'
दिल के कुछ ज़ख़्म ज़बाँ पर आए
ग़ज़ल
हम कहाँ आइना ले कर आए
बाक़ी सिद्दीक़ी