हम जो पहले कहीं मिले होते
और ही अपने सिलसिले होते
फिर हर इक बात ठीक से होती
फिर न उलझन न फ़ासले होते
फिर न तन्हाई रात को डसती
फिर न क़िस्मत से ये गिले होते
फिर न लगता ये शहर इक सहरा
फिर न गुम दिल के क़ाफ़िले होते
फिर ग़ज़ल होती सब ज़बानों पर
फिर किसी के न लब सिले होते
फिर हर इक लम्हा गुनगुना उठता
फिर हर इक सम्त गुल खिले होते
ग़ज़ल
हम जो पहले कहीं मिले होते
सलमान अख़्तर