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हम जो गुज़रे उन की महफ़िल के क़रीब | शाही शायरी
hum jo guzre unki mahfil ke qarib

ग़ज़ल

हम जो गुज़रे उन की महफ़िल के क़रीब

गुलज़ार देहलवी

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हम जो गुज़रे उन की महफ़िल के क़रीब
इक कसक सी रह गई दल के क़रीब

सब के सब बैठे थे क़ातिल के क़रीब
बे-कसी थी सिर्फ़ बिस्मिल के क़रीब

ज़िंदगी क्या थी अजब तूफ़ान थी
अब कहीं पहुँचे हैं मंज़िल के क़रीब

इस क़दर ख़ुद-रफ़्ता-ए-सहरा हुए
भूल कर देखा न महमिल के क़रीब

हाए उस मुख़्तार की मजबूरियाँ
जिस ने दम तोड़ा हो मंज़िल के क़रीब

ज़िंदगी-ओ-मौत वाहिद आइना
आदमी है हद्द-ए-फ़ासिल के क़रीब

ये तजाहुल आरिफ़ाना है जनाब
भूल कर जाना न ग़ाफ़िल के क़रीब

तर्बियत को हुस्न-ए-सोहबत चाहिए
बैठिए उस्ताद-ए-कामिल के क़रीब

होश की कहता है दीवाना सदा
और मायूसी है आक़िल के क़रीब

देखिए उन बद-नसीबों का मआल
वो जो डूबे आ के साहिल के क़रीब

छाई है 'गुलज़ार' में फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ
फूल हैं सब गुल शमाइल के क़रीब