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हम जिसे समझते थे सई-ए-राएगाँ यारो | शाही शायरी
hum jise samajhte the sai-e-raegan yaro

ग़ज़ल

हम जिसे समझते थे सई-ए-राएगाँ यारो

फ़रीद जावेद

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हम जिसे समझते थे सई-ए-राएगाँ यारो
अब उसी से मिलना है अपना कुछ निशाँ यारो

रुक सके तो मुमकिन है नग़्मगी में ढल जाए
उठ रही है सीनों में शोरिश-ए-फ़ुग़ाँ यारो

क्या ख़याल है तुम को क्या मलाल है तुम को
पूछता कोई तुम से क्यूँ हूँ सरगिराँ यारो

बर्क़ से तसादुम का वक़्त आ ही जाएगा
ढूँडते रहोगे तुम बर्क़ से अमाँ यारो

सच से प्यार करने का हौसला नहीं है और
मस्लहत की राहों से दिल है बद-गुमाँ यारो

कुछ सुरूर तो होगा कोई नूर तो होगा
जिस से ज़ुल्मत-ए-शब में दिल है नग़्मा-ख़्वाँ यारो

कम-सबात होती है ताज़गी-ओ-रा'नाई
देर तक नहीं रहता सुब्ह का समाँ यारो