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हम हिज्र के रस्तों की हवा देख रहे हैं | शाही शायरी
hum hijr ke raston ki hawa dekh rahe hain

ग़ज़ल

हम हिज्र के रस्तों की हवा देख रहे हैं

तालीफ़ हैदर

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हम हिज्र के रस्तों की हवा देख रहे हैं
मंज़िल से परे दश्त-ए-बला देख रहे हैं

इस शहर में एहसास की देवी नहीं रहती
हर शख़्स के चेहरे को नया देख रहे हैं

इंकार भी करने का बहाना नहीं मिलता
इक़रार भी करने का मज़ा देख रहे हैं

तू है भी नहीं और निकलता भी नहीं है
हम ख़ुद को रग-ए-जाँ के सिवा देख रहे हैं

कुछ कह के गुज़र जाएगा इस बार ज़माना
हम उस के तबस्सुम की सदा देख रहे हैं