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हम हद-ए-इंदिमाल से भी गए | शाही शायरी
hum had-e-indimal se bhi gae

ग़ज़ल

हम हद-ए-इंदिमाल से भी गए

अर्श सिद्दीक़ी

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हम हद-ए-इंदिमाल से भी गए
अब फ़रेब-ए-ख़याल से भी गए

दिल पे ताला ज़बान पर पहरा
यानी अब अर्ज़-ए-हाल से भी गए

जाम-ए-जम की तलाश ले डूबी
अपने जाम-ए-सिफ़ाल से भी गए

ख़ौफ़-ए-कम-माएगी बुरा हो तिरा
आरज़ू-ए-विसाल से भी गए

शोरिश-ए-ज़िंदगी तमाम हुई
गर्दिश-ए-माह-ओ-साल से भी गए

यूँ मिटे हम कि अब ज़वाल नहीं
शौक़-ए-औज-ए-कमाल से भी गए

हम ने चाहा था तेरी चाल चलें
हाए हम अपनी चाल से भी गए

हुस्न-ए-फ़र्दा ख़याल-ओ-ख़्वाब रहा
और माज़ी ओ हाल से भी गए

हम तही-दस्त वक़्फ़-ए-ग़म हैं वही
तंग-ना-ए-सवाल से भी गए

सज्दा भी 'अर्श' उन को कर देखा
इस रह-ए-पाएमाल से भी गए