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हम अहल-ए-ज़र्फ़ कि ग़म-ख़ाना-ए-हुनर में रहे | शाही शायरी
hum ahl-e-zarf ki gham-KHana-e-hunar mein rahe

ग़ज़ल

हम अहल-ए-ज़र्फ़ कि ग़म-ख़ाना-ए-हुनर में रहे

सहर अंसारी

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हम अहल-ए-ज़र्फ़ कि ग़म-ख़ाना-ए-हुनर में रहे
सिफ़ाल-ए-नम की तरह दस्त-ए-कूज़ा-गर में रहे

फ़रार मिल न सका हब्स-ए-जिस्म-ओ-जाँ से कि हम
तिलिस्म-ख़ाना-ए-तकरार-ए-ख़ैर-ओ-शर में रहे

किसी को क़ुर्ब-ए-मुसलसल का हौसला न हुआ
मिसाल-ए-दूद-ए-परेशाँ हम अपने घर में रहे

न संग-ए-मील था कोई न कोई नक़्श-ए-क़दम
तमाम उम्र हवा की तरह सफ़र में रहे

न हम शरार-ए-दिल-ए-संग थे न रंग-ए-हिना
सुख़न की आग बने हर्फ़-ए-ताज़ा-तर में रहे

वो लोग जिन की ज़बाँ शो'ला-ए-तमन्ना थी
सवाल बन के ज़माने की चश्म-ए-तर में रहे