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हम अहल-ए-ग़म भी रखते हैं जादू-बयानियाँ | शाही शायरी
hum ahl-e-gham bhi rakhte hain jadu-bayaniyan

ग़ज़ल

हम अहल-ए-ग़म भी रखते हैं जादू-बयानियाँ

ख़लील-उर-रहमान आज़मी

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हम अहल-ए-ग़म भी रखते हैं जादू-बयानियाँ
ये और बात है कि सुनीं लन-तरानियाँ

शर्मिंदा कर न मुझ को मिरा हाल पूछ कर
ले दे के रह गई हैं यही बे-ज़बानियाँ

कम क्या था हम फ़क़ीरों को आशोब-ए-रोज़गार
क्यूँ याद आ रही हैं तिरी मेहरबानियाँ

दामन के चाक चाक में है मौसम-ए-बहार
आओ कि ख़ून-ए-दिल से करें गुल-फ़िशानियाँ

अहल-ए-ज़माना तुम भी बड़े वक़्त पर मिले
कुछ बार हो चली थीं मिरी शादमानियाँ

तुम ने भुला दिया तो नई बात क्या हुई
रहती हैं याद किस को वफ़ा की कहानियाँ

जी खोल कर लुटाएँगे अब तेरी राह में
तेरे बला-कशों को मिली हैं जवानियाँ

रख लो कि ज़िंदगी में कभी काम आएँगी
दीवानगान-ए-इश्क़ की भी कुछ निशानियाँ