हैराँ हूँ दिल का हाल छुपाऊँ कहाँ कहाँ
सब जान गए बात बनाऊँ कहाँ कहाँ
इक चीज़ ज़ख़्म-ए-दिल है दिखाऊँ कहाँ कहाँ
इक बात सोज़-ए-दिल है सुनाऊँ कहाँ कहाँ
दो चार हों मक़ाम तो तीरथ भी कर बने
हर जा जो तू रहे तो मैं जाऊँ कहाँ कहाँ
हर शय में हर बशर में नज़र आ रहा है तू
सज्दे में अपने सर को झुकाऊँ कहाँ कहाँ
सहरा सही नसीब में पर क्या मेरी सअ'त
इक मुश्त-ए-ख़ाक ख़ाक उड़ाऊँ कहाँ कहाँ
महफ़िल में मय-कदे में कि बज़्म-ए-रक़ीब में
बतला कि तुझ से आँख चुराऊँ कहाँ कहाँ
इक दश्त-ए-ला-हिसाब में खोया गया है दिल
'रहबर' अब उस को ढूँडने जाऊँ कहाँ कहाँ

ग़ज़ल
हैराँ हूँ दिल का हाल छुपाऊँ कहाँ कहाँ
जितेन्द्र मोहन सिन्हा रहबर