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हैं अगर दार-ओ-रसन सुब्ह-ए-मुनव्वर के एवज़ | शाही शायरी
hain agar dar-o-rasan subh-e-munawwar ke ewaz

ग़ज़ल

हैं अगर दार-ओ-रसन सुब्ह-ए-मुनव्वर के एवज़

कर्रार नूरी

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हैं अगर दार-ओ-रसन सुब्ह-ए-मुनव्वर के एवज़
फिर तो ख़ुर्शीद ही उभरेगा मिरे सर के एवज़

हम को भी सर कोई दरकार है अब सर के एवज़
पत्थर इक हम भी चला देते हैं पत्थर के एवज़

फ़र्क़ क्या पड़ता है हो जाए अगर दाद-रसी
इक नज़र देख ही लो वादा-ए-महशर के एवज़

हम ने चाहा था कि पत्थर ही से ठोकर खाएँ
सर भी इक हम को मिला राह में पत्थर के एवज़

पासबानान-ए-चमन रह गए बैरून-ए-चमन
नर्गिस-ए-ख़ुफ़्ता मिली सर्व-ओ-सनोबर के एवज़

अब कहाँ पहला सा साक़ी के करम का दस्तूर
आबरू बेचनी पड़ जाती है साग़र के एवज़

क्या ख़बर वो ही चले आएँ सजा लूँ घर को
मौज-ए-गुल आने लगी आज तो सरसर के एवज़

उन के व'अदे की जो तस्दीक़ भी चाही 'नूरी'
साफ़ इंकार था ताईद-ए-मुकर्रर के एवज़