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हैजान में तलाश-ए-सुकूँ कर रहा हूँ मैं | शाही शायरी
haijaan mein talash-e-sukun kar raha hun main

ग़ज़ल

हैजान में तलाश-ए-सुकूँ कर रहा हूँ मैं

ख़ार देहलवी

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हैजान में तलाश-ए-सुकूँ कर रहा हूँ मैं
यूँ अपने ग़म को और फ़ुज़ूँ कर रहा हूँ मैं

वो सुन रहे हैं और तबस्सुम है ज़ेर-ए-लब
उन से बयान हाल-ए-ज़बूँ कर रहा हूँ मैं

अब इस से बढ़ के और हो वहशत का क्या सुबूत
तालीफ़ नुस्ख़ा-हा-ए-जुनूँ कर रहा हूँ मैं

इक दुश्मन-ए-वफ़ा से बढ़ाई है रस्म-ओ-राह
ख़ुद अपनी आरज़ूओं का ख़ूँ कर रहा हूँ मैं

अब वादी-ए-जुनूँ में क़दम रख चुका है इश्क़
तशहीर-ए-दाग़-हा-ए-दरूँ कर रहा हूँ मैं

मसहूर हो रहे हैं वो सुन कर मिरा कलाम
दम उन पे जैसे कोई फ़ुसूँ कर रहा हूँ मैं

माबूद है वो बस मिरा मतलूब ही नहीं
सज्दा उस आस्ताने पे यूँ कर रहा हूँ मैं

शायद कि आब-ए-तेग़ ही आब-ए-हयात हो
हद्द-ए-अदब से ख़ुद को बरूँ कर रहा हूँ मैं

सीना भी मेरा हाथ भी मेरे तुम्हें ग़रज़
ज़द-कूब अपने सीना को क्यूँ कर रहा हूँ मैं

चुपके से सह रहा हूँ सितम तेरे बेवफ़ा
मेरी ख़ता तो जब हो कि चूँ कर रहा हूँ मैं

ज़ोम-ए-ख़ुदी में जिस पे न जाने का अहद था
उस दर पे 'ख़ार' सर को निगूँ कर रहा हूँ मैं