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है लेकिन अजनबी ऐसा नहीं है | शाही शायरी
hai lekin ajnabi aisa nahin hai

ग़ज़ल

है लेकिन अजनबी ऐसा नहीं है

रसा चुग़ताई

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है लेकिन अजनबी ऐसा नहीं है
वो चेहरा जो अभी देखा नहीं है

बहर-सूरत है हर सूरत इज़ाफ़ी
नज़र आता है जो वैसा नहीं है

इसे कहते हैं अंदोह-ए-मआनी
लब-ए-नग़्मा गुल-ए-नग़्मा नहीं है

लहू में मेरे गर्दिश कर रहा है
अभी वो हर्फ़ जो लिक्खा नहीं है

हुजूम-ए-तिश्नगाँ है और दरिया
समझता है कोई प्यासा नहीं है

अजब मेरा क़बीला है कि जिस में
कोई मेरे क़बीले का नहीं है

जहाँ तुम हो वहाँ साया है मेरा
जहाँ मैं हूँ वहाँ साया नहीं है

सर-ए-दामान-ए-सहरा खिल रहा है
मगर वो फूल जो मेरा नहीं है

मुझे वो शख़्स ज़िंदा कर गया है
जिसे ख़ुद अपना अंदाज़ा नहीं है

मोहब्बत में 'रसा' खोया ही क्या था
जो ये कहते कि कुछ पाया नहीं है