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है ग़म-ए-हिज्र न अब ज़ौक़-ए-तलब कुछ भी नहीं | शाही शायरी
hai gham-e-hijr na ab zauq-e-talab kuchh bhi nahin

ग़ज़ल

है ग़म-ए-हिज्र न अब ज़ौक़-ए-तलब कुछ भी नहीं

अलीमुल्लाह हाली

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है ग़म-ए-हिज्र न अब ज़ौक़-ए-तलब कुछ भी नहीं
आज तुम लौट के आए हो कि जब कुछ भी नहीं

तेरे ठुकराने की निस्बत से हुए हैं मशहूर
हम फ़क़ीरों का यहाँ नाम-ओ-नसब कुछ भी नहीं

आज ये बार-ए-मुलाक़ात उठेगा क्यूँ-कर
उस से मिलना है प मिलने का सबब कुछ भी नहीं

एक आवाज़ ने तोड़ी है ख़मोशी मेरी
ढूँढता हूँ तो पस-ए-साहिल-ए-शब कुछ भी नहीं