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है दिल को मेरे आरिज़-ए-जानाँ से इर्तिबात | शाही शायरी
hai dil ko mere aariz-e-jaanan se irtibaat

ग़ज़ल

है दिल को मेरे आरिज़-ए-जानाँ से इर्तिबात

शाह आसिम

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है दिल को मेरे आरिज़-ए-जानाँ से इर्तिबात
बुलबुल को जिस तरह हो गुलिस्ताँ से इर्तिबात

मुझ दर्द-मंद-ए-इश्क़ की तदबीर है अबस
होगा न मेरे दर्द को दरमाँ से इर्तिबात

बंदा हूँ इश्क़ का नहीं मज़हब से मुझ को काम
क्यूँकर करूँ मैं गबरू मुसलमाँ से इर्तिबात

है रब्त मुझ को कूचा-ए-जानाँ से रोज़-ओ-शब
मजनूँ को जिस तरह था बयाबाँ से इर्तिबात

मज़हब है मेरा इश्क़ और रिंदी है मेरा काम
है कुफ़्र से न मुझ को न ईमाँ से इर्तिबात

है रब्त मुझ को क़ामत-ए-जानाँ से जिस तरह
क़ुमरी का होवे सर्व-ए-गुलिस्ताँ से इर्तिबात

'आसिम' जहान में शह-ए-ख़ादिम के मैं सिवा
काफ़िर हूँ गर करूँ किसी इंसाँ से इर्तिबात