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है बहुत ताक़ वो बेदाद में डर है ये भी | शाही शायरी
hai bahut taq wo bedad mein Dar hai ye bhi

ग़ज़ल

है बहुत ताक़ वो बेदाद में डर है ये भी

ज़ेब ग़ौरी

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है बहुत ताक़ वो बेदाद में डर है ये भी
जाँ सलामत न बचा लाऊँ ख़तर है ये भी

दिल की लौ फिर उसी ठहराओ पे आ जाएगी
इक ज़रा देर हवाओं का असर है ये भी

जू-ए-पायाब-ए-मोहब्बत में जवाहिर मत ढूँढ
किसी पत्थर को समझ ले कि गुहर है ये भी

जुस्तुजू गौहर-ए-मअ'नी की ज़ियाँ वक़्त का है
क्या परखता है उन्हें सर्फ़-ए-नज़र है ये भी

मंज़िलें ख़त्म हुईं तर्क ओ तअ'ल्लुक़ की तमाम
अब किसी सम्त निकल जा कि सफ़र है ये भी

अब सलामत कहाँ रह पाएगा ये नक़्श-ए-वफ़ा
कुछ लहू दिल का बचा ले कि हुनर है ये भी

दश्त ओ दर में वही सुर्ख़ी वही पेड़ों पे चमक
ज़र्द फूलों को न देखो तो सहर है ये भी

आगे चल के तो कड़े कोस हैं तन्हाई के
और कुछ दूर तलक लुत्फ़-ए-सफ़र है ये भी

क्या है मैं जिस के तजस्सुस में परेशान भी हूँ
'ज़ेब' कुछ हाथ न आएगा ख़बर है ये भी