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है अजब धुँद जिधर आँख उठा कर देखूँ | शाही शायरी
hai ajab dhund jidhar aankh uTha kar dekhun

ग़ज़ल

है अजब धुँद जिधर आँख उठा कर देखूँ

ज़िशान इलाही

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है अजब धुँद जिधर आँख उठा कर देखूँ
रेग-ए-साहिल से निमट लूँ तो समुंदर देखूँ

मेरे हम-साए में ख़ाली है किराए का मकान
आ के बस जाओ कि मैं तुम को बराबर देखूँ

जाने कौन आ के पलट जाता है दरवाज़े से
एक साया सा मैं दहलीज़ पर अक्सर देखूँ

ऐसा उलझाया गया मुझ को फ़लक-साज़ी में
इतनी मोहलत ही नहीं थी कि ज़मीं पर देखूँ

और गुल होंगे खुले दहर में 'ज़ीशान' मगर
अपने गुलशन से भरे जी तो मैं बाहर देखूँ