है अब तो वो हमें उस सर्व-ए-सीम-बर की तलब
कि ताइरान-ए-हवा से है बाल-ओ-पर की तलब
जो कहिए हुस्न को ख़्वाहिश नहीं ये क्या इम्काँ
उसे भी अहल-ए-नज़र से है इक नज़र की तलब
कमाल-ए-इश्क़ भी ख़ाली नहीं तमन्ना से
जो है इक आह तो उस को भी है असर की तलब
परी-रुख़ों को ग़रज़ क्या थी ज़ेब-ओ-ज़ीनत से
न होती गर उन्हें अपने नज़ारा-गर की तलब
तलब से किस को रिहाई है बहर-ए-हस्ती में
अगर सदफ़ है तो उस को भी है गुहर की तलब
चमन में बुलबुल-ओ-गुल भी हैं अपने मतलब के
इसे है गुल की तलब उस को मुश्त-ए-ज़र की तलब
जहाँ वो बाग़-ए-तमन्ना है जिस के बीच 'नज़ीर'
जो इक शजर है तो उस को भी है समर की तलब
ग़ज़ल
है अब तो वो हमें उस सर्व-ए-सीम-बर की तलब
नज़ीर अकबराबादी