है आरज़ू ये जी में उस की गली में जावें
और ख़ाक अपने सर पर मन मानती उड़ावें
शोर-ए-जुनूँ है हम को और फ़स्ल-ए-गुल भी आई
अब चाक कर गरेबाँ क्यूँकर न बन में जावें
बे-दर्द लोग सब हैं हमदर्द एक भी नहीं
यारो हम अपने दुख को जा किस के तईं सुनावें
ये आरज़ू हमारी मुद्दत से है कि जा कर
क़ातिल की तेग़ के तईं अपना लहू चटावें
ख़जलत से ख़ूँ में डूबे या आग से लगे उठ
लाला के तईं चमन में गर दाग़-ए-दिल दिखावें
बे-इख़्तियार सुन कर महफ़िल में शम्अ रो दे
हम बात सोज़-ए-दिल की गर टुक ज़बाँ पे लावें
यहाँ यार और बरदार कोई नहीं किसी का
दुनिया के बीच 'ताबाँ' हम किस से दिल लगावें
ग़ज़ल
है आरज़ू ये जी में उस की गली में जावें
ताबाँ अब्दुल हई