है आफ़त-ए-जाँ हुस्न की शोख़ी भी अदा भी
होंटों पे तबस्सुम भी है नज़रों में हया भी
शामिल तिरी आवाज़ में तारों की नवा भी
शर्मिंदा तिरे नूर से किरनों की ज़िया भी
महफ़िल है कि मुतरिब के इशारों पे मिटी है
सुनता है कोई साज़-ए-शिकस्ता की सदा भी
रखता है बग़ावत के शरारे भी नज़र में
ये इश्क़ जो है पैकर-ए-तस्लीम-ओ-रज़ा भी
रुख़ फेर दिया तुंद हवाओं का किसी ने
हालात से अपने कोई मजबूर रहा भी
बच कर ही चले हम तो ज़माने की रविश से
आज़ाद-रवी का हमें एहसास हुआ भी
अक्सर लब-ए-लालीं के तबस्सुम की किरन ने
उम्मीद के ख़ाकों में नया रंग भरा भी
ऐ 'नक़्श' करें सोज़-ए-तमन्ना का बयाँ क्या
सौ बार दिया दिल का जला भी है बुझा भी
ग़ज़ल
है आफ़त-ए-जाँ हुस्न की शोख़ी भी अदा भी
महेश चंद्र नक़्श