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हाथ उठते ही कटा चलिए यहाँ से चलिए | शाही शायरी
hath uThte hi kaTa chaliye yahan se chaliye

ग़ज़ल

हाथ उठते ही कटा चलिए यहाँ से चलिए

मज़हर इमाम

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हाथ उठते ही कटा चलिए यहाँ से चलिए
क्या दुआ कैसी दुआ चलिए यहाँ से चलिए

बाज़ है कोई दरीचा न कोई दर है खुला
कोई जल्वा न अदा चलिए यहाँ से चलें

उस के घर पर भी वही शहर-ए-ख़मोशाँ का समाँ
कोई आहट न सदा चलिए यहाँ से चलिए

ख़्वाब ख़ुशबू-ए-तलब रंग-ए-हवस नाज़-ए-वफ़ा
सारा सरमाया गया चलिए यहाँ से चलिए

कोई साया न शजर कोई तमन्ना न उमंग
उड़ गई सर से रिदा चलिए यहाँ से चलिए

इस चका-चौंद में सिक्कों की परख क्या होगी
कोई खोटा न खरा चलिए यहाँ से चलिए

दोस्तों ही के क़बीले में ये कोहराम नहीं
दुश्मनों ने भी कहा चलिए यहाँ से चलिए