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हाथ पकड़ ले अब भी तेरा हो सकता हूँ मैं | शाही शायरी
hath pakaD le ab bhi tera ho sakta hun main

ग़ज़ल

हाथ पकड़ ले अब भी तेरा हो सकता हूँ मैं

आलम ख़ुर्शीद

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हाथ पकड़ ले अब भी तेरा हो सकता हूँ मैं
भीड़ बहुत है इस मेले में खो सकता हूँ मैं

पीछे छूटे साथी मुझ को याद आ जाते हैं
वर्ना दौड़ में सब से आगे हो सकता हूँ मैं

कब समझेंगे जिन की ख़ातिर फूल बिछाता हूँ
राहगुज़र में काँटे भी तो बो सकता हूँ मैं

इक छोटा सा बच्चा मुझ में अब तक ज़िंदा है
छोटी छोटी बात पे अब भी रो सकता हूँ मैं

सन्नाटे में दहशत हर पल गूँजा करती है
इस जंगल में चैन से कैसे सो सकता हूँ मैं

सोच समझ कर चट्टानों से उलझा हूँ वर्ना
बहती गंगा में हाथों को धो सकता हूँ मैं