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हाथ आँखों पे रख लेने से ख़तरा नहीं जाता | शाही शायरी
hath aankhon pe rakh lene se KHatra nahin jata

ग़ज़ल

हाथ आँखों पे रख लेने से ख़तरा नहीं जाता

मुज़फ़्फ़र वारसी

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हाथ आँखों पे रख लेने से ख़तरा नहीं जाता
दीवार से भौंचाल को रोका नहीं जाता

दा'वों की तराज़ू में तो अज़्मत नहीं तुलती
फ़ीते से तो किरदार को नापा नहीं जाता

फ़रमान से पेड़ों पे कभी फल नहीं लगते
तलवार से मौसम कोई बदला नहीं जाता

चोर अपने घरों में तो नहीं नक़्ब लगाते
अपनी ही कमाई को तो लूटा नहीं जाता

औरों के ख़यालात की लेते हैं तलाशी
और अपने गरेबान में झाँका नहीं जाता

फ़ौलाद से फ़ौलाद तो कट सकता है लेकिन
क़ानून से क़ानून को बदला नहीं जाता

ज़ुल्मत को घटा कहने से बारिश नहीं होती
शो'लों को हवाओं से तो ढाँपा नहीं जाता

तूफ़ान में हो नाव तो कुछ सब्र भी आ जाए
साहिल पे खड़े हो के तो डूबा नहीं जाता

दरिया के किनारे तो पहुँच जाते हैं प्यासे
प्यासों के घरों तक कोई दरिया नहीं जाता

अल्लाह जिसे चाहे उसे मिलती है 'मुज़फ़्फ़र'
इज़्ज़त को दुकानों से ख़रीदा नहीं जाता