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हासिल-ए-ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ नाकाम है | शाही शायरी
hasil-e-zabt-e-fughan nakaam hai

ग़ज़ल

हासिल-ए-ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ नाकाम है

फ़िगार उन्नावी

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हासिल-ए-ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ नाकाम है
अब तो ख़ामोशी पे भी इल्ज़ाम है

कोई आवाज़-ए-शिकस्त-ए-जाम है
तौबा तौबा हर तरफ़ कोहराम है

ये भी फ़ैज़-ए-गर्दिश-ए-अय्याम है
सुब्ह है अपनी न अपनी शाम है

दिल हुआ तर्क-ओ-तलब से बे-नियाज़
अब यहाँ आराम ही आराम है

बहर-ए-तूफ़ाँ-ख़ेज़ का साहिल कहाँ
इश्क़ का आग़ाज़ बे-अंजाम है

रंज कोई शय न कोई शय ख़ुशी
मुख़्तलिफ़ एहसास का इक नाम है

फिर किसी ने आने का वादा किया
सुब्ह से फिर इंतिज़ार-ए-शाम है

शायरों में यूँ तो अपना भी 'फ़िगार'
नाम है लेकिन बराए नाम है