हार कर हिज्र-ए-ना-तमाम से हम
चुपके बैठे हुए हैं शाम से हम
कैसे इतरा रहे हैं अपनी जगह
हो के मंसूब उन के नाम से हम
बस कि दीवाना ही कहेंगे लोग
आश्ना हैं मज़ाक़-ए-आम से हम
उन की आँखों को जाम कह तो दिया
अब निगाहें लड़ाएँ जाम से हम
रुख़ पे ज़ुल्फ़ें बिखेरे आ जाओ
लौ लगाए हुए हैं शाम से हम
नाम क्यूँ लें किसी के कूचे का
इक जगह जा रहे हैं काम से हम
उन को पाना है किस लिए 'महशर'
बाज़ आएँ ख़याल-ए-ख़ाम से हम
ग़ज़ल
हार कर हिज्र-ए-ना-तमाम से हम
महशर इनायती