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गुज़रेगी क्या जमाल-ए-रुख़-ए-यार देख कर | शाही शायरी
guzregi kya jamal-e-ruKH-e-yar dekh kar

ग़ज़ल

गुज़रेगी क्या जमाल-ए-रुख़-ए-यार देख कर

कौकब शाहजहाँपुरी

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गुज़रेगी क्या जमाल-ए-रुख़-ए-यार देख कर
हैरत है हुस्न हसरत-ए-दीदार देख कर

ना-साज़ी-ए-जहाँ की तो पर्वा कभी न थी
जी बुझ गया है तुम को दिल-आज़ार देख कर

इस दिल-फ़िगार-ए-शौक़ की हसरत न पोछिए
मजरूह हो गया हो जो तलवार देख कर

आँखें हुई थीं चार कि पहलू में कुछ न था
दिल खो गया निगाह-ए-ख़रीदार देख कर

कोई खुला हुआ है तो कोई छुपा हुआ
वाइ'ज़ न छेड़ मुझ को गुनाहगार देख कर

बेताब कर दिया निगह-ए-इल्तिफ़ात ने
आँसू निकल पड़े उन्हें ग़म-ख़्वार देख कर

'कौकब' दयार-ए-इश्क़ कुछ ऐसा उदास है
रोती है बेकसी दर-ओ-दीवार देख कर