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गुज़र जाए जो आँखों से वो फिर मंज़र नहीं रहता | शाही शायरी
guzar jae jo aankhon se wo phir manzar nahin rahta

ग़ज़ल

गुज़र जाए जो आँखों से वो फिर मंज़र नहीं रहता

परविंदर शोख़

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गुज़र जाए जो आँखों से वो फिर मंज़र नहीं रहता
जुदा हो कर जुदा होने का कोई डर नहीं रहता

मिटें बेचैनियाँ आख़िर दर-ओ-दीवार की कैसे
घरों में लोग रहते हैं दिलों में घर नहीं रहता

दिखाई किस तरह दे शहर में कोई मुझे आख़िर
सिवा उस के नज़र में अब कोई मंज़र नहीं रहता

ये हैरत है के मुझ को ग़म नहीं है उस को खो कर भी
परेशाँ वो भी है वो ख़ुश मुझे पा कर नहीं रहता

नहीं देती इजाज़त झूट कहने की ये ख़ुद्दारी
अगर सच बोलते हैं महफ़िलों में सर नहीं रहता

जिसे वो 'शोख़' अपने हाथ से छू कर गुज़र जाए
वो पथर फिर ज़ियादा देर तक पत्थर नहीं रहता