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गुज़र चुका है ज़माना विसाल करने का | शाही शायरी
guzar chuka hai zamana visal karne ka

ग़ज़ल

गुज़र चुका है ज़माना विसाल करने का

मोहसिन असरार

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गुज़र चुका है ज़माना विसाल करने का
ये कोई वक़्त है तेरे कमाल करने का

बुरा न मान जो पहलू बदल रहा हूँ मैं
मिरा तरीक़ा है ये अर्ज़-ए-हाल करने का

मुझे उदास न कर वर्ना साख टूटेगी
नहीं है तजरबा मुझ को मलाल करने का

तलाश कर मिरे अंदर वजूद को अपने
इरादा छोड़ मुझे पाएमाल करने का

ये हम जो इश्क़ में बीमार पड़ते रहते हैं
ये इक सबब है तअ'ल्लुक़ बहाल करने का

अजीब शख़्स था लौटा गया मिरा सब कुछ
मुआवज़ा न लिया देख-भाल करने का

फिर इस के बा'द हमेशा ही चुप रहे 'मोहसिन'
ख़िराज देना पड़ा अर्ज़-ए-हाल करने का