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ग़ुरूब-ए-मेहर का मातम है गुलिस्तानों में | शाही शायरी
ghurub-e-mehr ka matam hai gulistanon mein

ग़ज़ल

ग़ुरूब-ए-मेहर का मातम है गुलिस्तानों में

रईस अमरोहवी

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ग़ुरूब-ए-मेहर का मातम है गुलिस्तानों में
नसीम-ए-सुब्ह भी शामिल है नौहा-ख़्वानों में

जहाँ थे रक़्स-ए-तरब में कभी दर-ओ-दीवार
बलाएँ नाच रही हैं अब उन मकानों में

अँधेरी रात भयानक खंडर मुहीब फ़ज़ा
भटक रहा हूँ अजल के सियाह-ख़ानों में

ये आमद आमद‌‌‌‌-ए-तूफ़ान-ए-शब ख़ुदा की पनाह
तुयूर-ए-शाम सिमट जाएँ आशियानों में

ये साएँ साएँ की आवाज़ है कि मौत की हूक
जो गूँजती है शयातीन के तरानों में

नदीम-ए-शब कोई अफ़साना-ए-फुसून-ओ-तिलिस्म
कि ज़िंदगी की झलक है इन्हीं फ़सानों में

नहीं है शहर-ए-वफ़ा की तबाहियों का गिला
मगर वो लोग जो रहते थे इन मकानों में

अजीब थीं ये ग़रीबों की बस्तियाँ लेकिन
ग़रीब रह न सके इन ग़रीब-ख़ानों में

हमारी गर्द-ए-सफ़र भी न अब मिले शायद
'रईस' अहल-ए-तमन्ना के कारवानों में