ग़ुंचा-ए-दिल खिले जो चाहो तुम 
गुलशन-ए-दहर में सबा हो तुम 
बे-मुरव्वत हो बेवफ़ा हो तुम 
अपने मतलब के आश्ना हो तुम 
कौन हो क्या हो क्या तुम्हें लिक्खें 
आदमी हो परी हो क्या हो तुम 
पिस्ता-ए-लब से हम को क़ुव्वत दो 
दिल-ए-बीमार की दवा हो तुम 
हम को हासिल किसी की उल्फ़त से 
मतलब-ए-दिल हो मुद्दआ हो तुम 
यही आशिक़ का पास करते हैं 
क्यूँ जी क्यूँ दर-प-ए-जफ़ा हो तुम 
उसी 'अख़्तर' के तुम हुए माशूक़ 
हँसो बोलो उसी को चाहो तुम
        ग़ज़ल
ग़ुंचा-ए-दिल खिले जो चाहो तुम
वाजिद अली शाह अख़्तर

