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ग़ुंचा-ए-दिल खिले जो चाहो तुम | शाही शायरी
ghuncha-e-dil khile jo chaho tum

ग़ज़ल

ग़ुंचा-ए-दिल खिले जो चाहो तुम

वाजिद अली शाह अख़्तर

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ग़ुंचा-ए-दिल खिले जो चाहो तुम
गुलशन-ए-दहर में सबा हो तुम

बे-मुरव्वत हो बेवफ़ा हो तुम
अपने मतलब के आश्ना हो तुम

कौन हो क्या हो क्या तुम्हें लिक्खें
आदमी हो परी हो क्या हो तुम

पिस्ता-ए-लब से हम को क़ुव्वत दो
दिल-ए-बीमार की दवा हो तुम

हम को हासिल किसी की उल्फ़त से
मतलब-ए-दिल हो मुद्दआ हो तुम

यही आशिक़ का पास करते हैं
क्यूँ जी क्यूँ दर-प-ए-जफ़ा हो तुम

उसी 'अख़्तर' के तुम हुए माशूक़
हँसो बोलो उसी को चाहो तुम