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गुनाहगार तो रहमत को मुँह दिखा न सका | शाही शायरी
gunahgar to rahmat ko munh dikha na saka

ग़ज़ल

गुनाहगार तो रहमत को मुँह दिखा न सका

नुशूर वाहिदी

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गुनाहगार तो रहमत को मुँह दिखा न सका
जो बे-गुनाह था वो भी नज़र मिला न सका

तरब है शेवा-ए-रिंदान-ए-आक़िबत-ना-शनास
जो गुल न था वो गुलिस्ताँ में मुस्कुरा न सका

बहुत ख़फ़ीफ़ थी कौन-ओ-मकाँ की जल्वागरी
मिरी निगाह का गोशा भी जगमगा न सका

हवाला-ए-निगह-ए-शर्मगीं हुईं आख़िर
वो बिजलियाँ जो कहीं आसमाँ गिरा न सका

बदीआ-कार है ज़ेहन-ए-ख़िरद-पसंद मगर
तसव्वुरात से तस्वीर-ए-ग़म बना न सका

अजब नहीं कि गुलिस्ताँ में पा-ब-गिल रह जाए
वो बद-नसीब जो रम्ज़-ए-ख़िराम पा न सका

जिया वो पाक जो रखता था ख़ार-ए-पैराहन
जो गुल ब-जैब था दामन कभी बचा न सका

'नुशूर' नाज़ुकी-ए-तब्-ए-शेर क्या कहिए
जहाँ में रह के ज़माने के नाज़ उठा न सका