गुमान-ए-ज़ख़्म-ए-तमन्ना था अब तलक मुझ को
नहीं है दाग़ भी दिल में न थी भनक मुझ को
चला गया तो कभी लौट कर नहीं आया
पुकारता रहा आईना-ए-फ़लक मुझ को
अब इस को ढूँढता फिरता हूँ शहर ओ दरिया में
चला गया वो दिखा कर बस इक झलक मुझ को
निढाल हूँ मैं ग़म-ए-दिल से होश कब है मुझे
बनाए रखती है इक हूक इक कसक मुझ को
मुझे तो इश्क़ है फूलों में सिर्फ़ ख़ुशबू से
बुला रही है किसी लाला की महक मुझ को
नक़ाब उट्ठा तो इक शोला सा भड़क उट्ठा
जला गई है तिरे चेहरे की झमक मुझ को
तरस रहा था उजालों को कब से मैं 'मामून'
पर अंधा कर गई सूरज की इक चमक मुझ को
ग़ज़ल
गुमान-ए-ज़ख़्म-ए-तमन्ना था अब तलक मुझ को
ख़लील मामून